कानपुर देहात
अधजल गगरी छलकत जाए, भरी गगरिया चुपके जाए
कानपुर देहात। अधजल गगरी छलकत जाए एक प्रसिद्ध कहावत है जिसका शाब्दिक अर्थ है आधी भरी हुई गागर (पानी का पात्र) ज्यादा हिलने-डुलने पर छलकने लगती है। इसका भावार्थ है कि कम ज्ञान या क्षमतावान व्यक्ति अक्सर अधिक दिखावा करता है या बढ़-चढ़कर बोलता है जबकि ज्ञानी या गुणवान व्यक्ति विनम्र और शांत रहता है। यह कहावत उन लोगों के लिए उपयोग की जाती है जो अपनी कम योग्यता या अनुभव के बावजूद स्वयं को बड़ा दिखाने की कोशिश करते रहते हैं।वर्तमान समय में यह आम बात हो गई है अगर कोई पैसे से कुछ संपन्न हो जाता है या छोटी मोटी सरकारी नौकरी पा जाता है तो वह अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है और अपने नाते रिश्तेदारों, दोस्तों को तवज्जो नहीं देता है यदि देता भी है तो उसे हर समय नीचा दिखाने का प्रयास करता है। आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में वैसे भी लोगों का एक दूसरे से मिलना आना-जाना बहुत ही कम हो पाता है जिससे कि समाज में एक दूसरे की मान मर्यादा, बात करने का तरीका अपनों से बड़ों, अपनों से छोटों का सम्मान कैसे करना और किस व्यक्ति से किस प्रकार की बात करनी है, कौन सी बात किस जगह पर करना और कब करना है यह शायद हम लोगों के एकाकी जीवन जीने से एकदम ही बदल गया है। सामाजिक क्षेत्र में प्राय: देखने में आ रहा है कि अधिकतर युवा पीढ़ी अपने मार्ग से और अपनी बुद्धि विवेक से अपने आप को सक्षम और विवेकशील बनने की चेष्टा में, दूसरों का मान सम्मान और मर्यादा को भूलती जा रही है जिससे कि सामाजिक परिपेक्ष में ऐसे लोग अपने साथ-साथ दूसरों की छवि धूमिल करने में कतईं ही कोर कसर नहीं छोड़ते। यह भी अंदाजा नहीं लगाते हैं कि हम जो शब्द कह रहे हैं, उन शब्दों से किसी के दिल को उसके मान सम्मान को या उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को क्या ठेस पहुंचती है। हम जो शब्द कहते हैं उन शब्दों का हम खुद अंदाज नहीं लगा सकते कि हमारे जो शब्द हैं वह किस प्रकार का काम कर रहे हैं। कबीर दास जी ने कहा है कि ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोए, औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए। इसका यह भावार्थ है कि कबीर दास जी हमें यह समझाते हैं कि हमेशा ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सामने वाले को सुनने से अच्छा लगे और उन्हें सुख की अनुभूति हो और साथ ही खुद को भी आनंद का अनुभव हो लेकिन हमारी जो पीढ़ी है उसके वार्तालाप और व्यवहार से तो अब ऐसा झलक रहा है कि भविष्य में क्या होगा इससे तो हमारी बुजुर्ग पीढ़ी ही सही थी। भले ही वह कम पढ़े लिखे थे लेकिन उनमें एक दूसरे का मान सम्मान, आदर, एक स्थान पर बैठना उठना, किसी भी कार्य को एकजुटता के साथ मिलकर करना लेकिन यहां पर युवा पीढ़ी उलट काम कर रही है। आधा अधूरा ज्ञान लेकर के खुद को अपमानित करना और दूसरों को अपमानित करने के लिए मजबूर करना। यह प्रचलन में आ गया है इससे यही प्रतीत हो रहा है कि अधजल गगरी छलकत जाए कहावत चरितार्थ हो रही है। जिससे कि इस देश का समाज का बहुत बड़ा तबका अच्छाइयों से अच्छे मार्ग से वंचित हो रहा है। एक दूसरे के सहयोग और मान सम्मान की भावना खत्म हो रही है। अभी भी वक्त है भाषा बोली कार्य प्रणाली में सुधार लाएं अच्छा वातावरण निर्मित हो उसकी कोशिश करें जिससे की बहुत से लोगों का भला हो सके। अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझने का प्रयास न करें।