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कानपुर देहात-सरकारी फरमानों के चक्रव्यूह में जकड़ा शिक्षक, सांस लेना भी इक पल को हुआ मुश्किल

कानपुर देहात

सरकारी फरमानों के चक्रव्यूह में जकड़ा शिक्षक, सांस लेना भी इक पल को हुआ मुश्किल
शिक्षकों को शिक्षक ही रहने दीजिए जादूगर ना बनाइये

कानपुर देहात।

शिक्षक का नाम जेहन में आते ही ऐसे व्यक्ति की छवि बनती है जो विद्यार्थियों को स्कूल में अध्ययन करवाते हैं लेकिन वास्तव में देखे तो बड़ी संख्या में परिषदीय शिक्षक शिक्षण के बजाय गैर शैक्षणिक कार्यों में ही व्यस्त रहते हैं। वर्तमान में परिषदीय स्कूलों का शिक्षक असमंजस की स्थिति में जी रहा है। उसके कंधों पर बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी तो है ही साथ ही अब उसे नामांकन एजेंट, ड्रॉपबॉक्स ऑपरेटर, बीआरसी प्रतिनिधि और घुमंतू खोजी दस्ते का भी कार्य सौंपा जा रहा है। ऐसे बच्चों को जबरन इम्पोर्ट कराना जो न तो विद्यालय आते हैं, न ही भविष्य में आने की संभावना है क्या यही शिक्षक का मूल कार्य है ? जो बच्चे वर्षों से किसी निजी, गैर मान्यता प्राप्त स्कूल में पढ़ रहे हैं या बाहर चले गए हैं, उनका रिकॉर्ड जब शिक्षक ने नियमानुसार ट्रांसफर सर्टिफिकेट के साथ पोर्टल से हटा दिया तो अब उन्हीं बच्चों को फिर से उन्हीं विद्यालयों में इम्पोर्ट करने का दबाव समझ से परे है। क्या शिक्षक अब बच्चों के अभिभावकों के पीछे गाँव-गाँव घूमता फिरे ? क्या वह हर घर जाकर पता करे कि बच्चा किस प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहा है फिर वहां के प्रधान से मिलकर इम्पोर्ट की प्रक्रिया पूरी करे और सबसे दुःखद बात यह है कि जिन बच्चों को हम ढूंढते फिरते हैं जिनके पीछे पूरा तंत्र लगा है उनके अभिभावक बच्चों को पढ़ने भेजते हैं प्राइवेट स्कूलों में और नामांकन करवाते हैं सरकारी स्कूलों में फिर सवाल शिक्षक की गरिमा पर आता है। जब गांव का कोई भी व्यक्ति उसे ताने देता है अपशब्द कहता है और समाज में शिक्षक की इज्जत सरे आम रौंदी जाती है। क्या यही समग्र शिक्षा अभियान है ?
शिक्षकों का कार्य बच्चों को शिक्षित करना है। नाम गिनाने की दौड़ में बच्चों का भविष्य और शिक्षा दोनों गिरवी न रखें।
शिक्षा या आंकड़ों का खेल-
सरकार और बेसिक शिक्षा विभाग की नीतियाँ यदि वास्तव में परिषदीय विद्यालयों की दशा और दिशा सुधारने के उद्देश्य से बनाई जा रही हैं तो सबसे पहले यह तय करना होगा कि शिक्षक का कार्य क्या है ? शिक्षा देना या गाँव-गाँव भटककर हर चीज का डेटा इकट्ठा करना ? आज शिक्षकों पर यह दबाव डाला जा रहा है कि वे हर उस बच्चे को दोबारा अपने स्कूल में इम्पोर्ट करें जो या तो निजी विद्यालयों में पढ़ रहा है या वर्षों से विद्यालय नहीं आ रहा है। यहाँ तक कि विभाग अब उन बच्चों को भी दुबारा शामिल करने का आदेश दे रहा है जिनका नाम नियमानुसार शिक्षक द्वारा ट्रांसफर प्रमाणपत्र के साथ पोर्टल से हटा दिया गया था। अब कहा जा रहा है कि पता करो बच्चा कहाँ पढ़ रहा है, किस कक्षा में है, किस स्कूल में है और वहाँ के प्रधानाध्यपक से बात करके वापस इम्पोर्ट कराओ वरना अपने ही स्कूल में जबरन नाम दर्ज करो। क्या ये शिक्षक का कार्य है। एक ओर शिक्षकों से अपेक्षा की जाती है कि वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दें, बच्चों के सीखने के स्तर को सुधारें, नवाचार करें, परिणाम लाएं और दूसरी ओर उन्हीं शिक्षकों को बीआरसी, सीआरसी, एमआईएस पोर्टल, नामांकन शिविर, जनगणना, परिवार सर्वेक्षण आदि जैसी अनगिनत जिम्मेदारियों में उलझा दिया गया है। फिर शिक्षा में सुधार की उम्मीद किस आधार पर की जाती है, अगर सरकार को वास्तव में शिक्षा का स्तर सुधारना है तो सबसे पहले परिषदीय विद्यालयों में फ्री की सुविधाओं का मोह त्यागना होगा।
मिड डे मील-
आज यह शिक्षा का सबसे बड़ा अभिशाप बन चुका है। इसका उद्देश्य बच्चों को स्कूल तक लाना था लेकिन आज यह भोजन का लालच बन कर रह गया है। शिक्षा गौण हो गई है। फ्री ड्रेस, जूता-मोजा, बैग आदि की डीबीटी राशि ₹1200 अभिभावकों के खातों में जाती है लेकिन क्या वास्तव में ये सामान बच्चों तक पहुँचता है ? जी नहीं, 80 प्रतिशत अभिभावक इस पैसे का उपयोग कहीं और करते हैं जैसे खेती-बाड़ी में, घरेलू खर्चों में। नतीजा बच्चे बिना यूनिफॉर्म के फटे कपड़ों में स्कूल आते हैं फिर जब शिक्षक कुछ कहता है तो वही अभिभावक अभद्रता पर उतर आते हैं।सरकारी स्कूल के शिक्षक की हालत यह है कि पढ़ाना चाहे तो समस्या, न पढ़ाए तो शिकायत। समाज में शिक्षक की इज्जत दिन-ब-दिन गिरती जा रही है क्योंकि उसे अब पढ़ाने वाला गुरु नहीं बल्कि सरकारी बाबू समझा जाने लगा है जो हर काम करता है, सिवाय शिक्षा के।
ड्रॉपबॉक्स खाली कराओ अभियान-
शिक्षक की गरिमा पर एक और चोट आई है। शिक्षक जब नियमानुसार किसी बच्चे का स्थानांतरण प्रमाणपत्र जारी करता है और उसे पोर्टल पर अपलोड कर नाम हटा देता है तो यह उस बच्चे की वास्तविक उपस्थिति व शिक्षा स्थिति पर आधारित एक प्रक्रियात्मक निर्णय होता है लेकिन आज विभाग उसी शिक्षक पर दबाव डाल रहा है कि ड्रॉपबॉक्स खाली करने के नाम पर उन्हीं बच्चों को वापस इम्पोर्ट करो। बिना यह सोचे कि क्या वह बच्चा वास्तव में कभी विद्यालय आएगा। क्या उसका पढ़ाई से कोई वास्ता है और सबसे दुःखद पक्ष यह है कि ऐसे बच्चे कई वर्षों तक स्कूल का मुंह नहीं देखते लेकिन जब कभी उन्हें नौकरी, योजना या किसी दस्तावेज के लिए मार्कशीट या टीसी की जरूरत होती है वे बेधड़क स्कूल आते हैं। शिक्षक, मानवतावश या विभागीय निर्देशों के कारण उन्हें दस्तावेज दे देता है और फिर वही बच्चा गांव में सीना ठोककर कहता है हम तो स्कूल गए ही नहीं फिर भी टीसी-मार्कशीट मिल गया सरकारी स्कूल तो ऐसा ही है। यही वो वाक्य है जो शिक्षक की वर्षों की मेहनत, ईमानदारी और गरिमा पर प्रश्नचिह्न बनाकर थूक देता है। समाज फिर शिक्षक को दोषी ठहराता है। ना शिक्षक अपनी सफाई दे सकता है, ना सिस्टम उसे संरक्षण देता है। जब शिक्षक को विवश कर दिया जाए कि वो ऐसे बच्चों को जबरन स्कूल में दर्ज करे जिनका स्कूल से कोई नाता नहीं है तो फिर शिक्षा नहीं, केवल आंकड़ों की लाशें तैयार होती हैं। अब समय आ गया है कि शिक्षक को मजबूर नहीं सक्षम बनाया जाए। अब समय आ गया है कि शिक्षक को केवल शिक्षक का कार्य करने दिया जाए। नामांकन, इम्पोर्ट, ड्रॉपबॉक्स, पोर्टल इन सबका बोझ शिक्षकों से हटाकर बीआरसी में लगे ऑपरेटरों/ तकनीकी लोगों को दिया जाए। एमडीएम और फ्री सामान की योजनाओं पर पुनर्विचार किया जाए या पूर्णतया बंद कर दिया जाए। शिक्षा को मुफ्त की चीज बनाकर उसके साथ खिलवाड़ बंद किया जाए। शिक्षकों को सम्मान, स्वतंत्रता और समय दिया जाए ताकि वे बच्चों को सही मायने में शिक्षित कर सकें। शिक्षकों को शिक्षा का कार्य करने दीजिए उन्हें आंकड़ों की जादूगरी का औजार न बनाइए।

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